
यूँ तो जीवन मे सब मग्न
कुछ बंधी जंज़ीरें, पर सबमे लग्न।
इस देह की अटारी पर खड़ी, हर रोज़ हूँ सोचती
क्या है ऐसा, जिसे पाने सारी दुनिया दौड़ती?
क्या है दौलत, शौहरत और रुतबे की कुछ कमी?
क्यों नही दिखती किसी भी दिल मे ज़रा सी नमी?
ख़ुद की रूह को भी हूँ खखोलती,
कुछ है ऐसा जिसकी चाह में, मैं भी अटखेलियां खेलती।
सवालों की इस गठरी के बोझ तले
आत्मा रूपी पहाड़ो पर कई गहरे क़दम बढ़े।
अन्हा किए सबसे प्रश्न, कैसे मना रहे है आप जश्न?
क्या नही हैं आप पूर्णता के अभिलाषी? अनया है नही यहाँ ज़रा भी उदासी!
हिमालय ने कुछ यूँही बुदबुदाया
संपूर्णता को खुद शायद ही जान पाया।
बहती नदी भी खुद को रोक नही पाई
बोली, अताह सागर जैसी ही है सच्चाई।
समुन्दर के मन में भी है अधूरेपन की त्रास
क्योंकि वो भी नही भुझा सकता है किसी की प्यास।
मैंने फिर देखा आकाश की ओर, क्या है तू पूर्णता की छोर?
उसने ली तब गहरी श्वास, मैं भी हूँ भीतर से खाली; कोई नही करता पर विश्वास।
क्या धरा के साथ ही खत्म हो जाता है मुकम्बलता का दौर?
हँसती हुई वह भी बोली, मैं तकती आकाश की औऱ।
जिस अधूरेपन को पूरा करने हो चली, यही तो है जीवन की सबसे सुंदर पहेली।
अज्ञानी में भी छुपे ज्ञानी हो, अपूर्ण में छिपे पूर्ण हो
अरे ज़रा मन का आईना देखो, आदमी तो तुम भी काम के हो।
SLC ने ऐसी अलग थलग नई दुनिया दिखाई,
एक पूरी अधूरी मुलाक़ात में, उसकी झलक को स्पर्श मात्र कर पाई।